नफरत का मुक़ाबला मुहब्बत से

Arsgad Madani
मौलाना अरशद मदनी की बात पूर्ण रूप से सही है कि नफरत से नफरत को कभी खत्म नहीं 
किया जा सकता, इसको सिर्फ मुहब्बत से ही हराया जा सकता है

Javed Qamar

जावेद क़मर

2014 के बाद से राजनीति के नाम पर देश में जो कुछ होता आरहा है, उस पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, भले ही 2024 के चुनाव में किसी एक पार्टी को बहुमत न मिली हो फिर भी जोड़तोड़ करके भाजपा ने तीसरी बार भी सत्ता प्राप्त कर ली। इसमें कोई संदेह नहीं कि विपक्ष पहले की तुलना में मज़बूत हुआ है और चुनाव के बाद हुए पहले संसद सत्र में उसने अपनी ताकत का परिचय भी करा दिया है, लेकिन समग्र रूप से देश की स्थिति में कोई बदलाव नहीं दिखता, देश में एक बार फिर भीड़ द्वारा हिंसा की एक नई लहर चल पड़ी है, हालांकि संसद में हिंसा और नफरत के खिलाफ आवाज़ उठ चुकी है, यहां तक कि नेता विपक्ष के रूप में श्री राहुल गांधी ने अपने भाषण में हिंसा और घृणा को ही विषय बनाया था परन्तु सरकार की ओर से अन्य बहुत सी बातें तो कही गईं मगर इस पर एक शब्द भी नहीं कहा गया। प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुई चर्चा का लम्बा उत्तर दिया जिसमें उन्होंने राहुल गांधी पर तीखे हमले भी किए मगर हिंसा, घृणा और सांप्रदायिकता के खिलाफ कुछ नहीं कहा। दुख की बात तो यह है कि जिन दो तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों की बैसाखी पर यह सरकार टिकी हुई है, उनकी ओर से भी इस पर कुछ नहीं कहा गया। अवसरवादी राजनीति का यह वो कुरूप चेहरा है जिस पर कुछ लोगों ने धर्मनिरपेक्षता का लेबल लगा रखा है।
हमारी लोकतांत्रिक राजनीति का दुर्भाग्य यह है कि स्वतंत्रता के बाद से अब तक देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक मुसलमानों की समस्याओं पर किसी भी पार्टी ने संसद के अंदर या संसद के बाहर कभी खुल कर कुछ कहने का साहस नहीं किया। संविधान के नाम पर शपथ तो लिया परन्तु अल्पसंख्यकों से संबंधित संविधान में दर्ज दिशा-निर्देशों का कभी पालन नहीं हुआ। दूसरी ओर कांग्रेस पर मुसलमानों के तुष्टिकरण का निरंतर आरोप लगता रहा है, यहां तक कि अपने चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री ने कांग्रेस पर यह हास्यास्पद आरोप भी लगाया कि कांग्रेस दलितों और पिछड़े वर्गां का आरक्षण समाप्त करके मुसलमानों को आरक्षण देना चाहती है, यह कितनी अजीब बात है कि जो कांग्रेस सच्चर कमेटी पर आई रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफारिशों को लागू करने का साहस न कर सकी उस पर मुसलमानों के तुष्टिकरण का आरोप लगा दिया जाए, इस प्रकार का आरोप लगाने वाले इस तथ्य से भलीभांति अवगत हैं कि स्व्तंत्रता के बाद सत्ता प्राप्ति के नाम पर मुसलमानों को केवल सपने ही दिखाए जाते रहे, उसके बाद भी अगर इस प्रकार का आरोप लाया जाता है तो इसका स्पष्ट अर्थ है कि ऐसा करके कुछ लोग बहुमत को गुमराह करना चाहते हैं, भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों ने आम तौर पर हर चुनाव में यही किया है और इसका भरपूर राजनीतिक लाभ भी उन्हें प्राप्त हुआ, लेकिन इस बार सभी प्रयासों और दुष्प्रचार के बावजूद ऐसा नहीं हुआ, भाजपा उत्तर प्रदेश में भी आशा के अनुरूप सफलता प्राप्त करने में विफल रही जहां अयोध्या में चुनाव से पहले राम मंदिर का उद्घाटन करके उसका निरंतर प्रचार कराया गया और प्रधानमंत्री ने कई बार वहां का हाईटेक दौरा भी किया। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि जो नफरत मुसलमानों के खिलाफ़ लोगों के मन में भरी गई है वो समाप्त हो गई। चुनाव के तुरंत बाद भीड़ द्वारा हिंसा की नई लहर उसका परिणाम है कि घृणा कम अवश्य हुई है समाप्त नहीं हुई। मुसलमानों पर अब यह आरोप भी लग रहा है कि वो हमेशा भाजपा को हराने के लिए ही वोट करते हैं। इस मानसिकता के लोगों को शायद यह मालूम नहीं कि लोकतांत्रिक राजनीति में हर व्यक्ति को इस बात की पूरी स्व्तंत्रता प्राप्त है कि वो अपनी पसंद के उम्मीदवार का चुनाव करे, अगर मुसलमान अपनी पसंद के उम्मीदवार को वोट देकर उसको चुनते हैं तो वो कोई अपराध नहीं करते।
वास्तव में देश में एक वर्ग ऐसे लोगों का पैदा कर दिया गया है जो हर मामले को धर्म के चश्मे से देखता है। हद तो यह है कि मुस्लिम दुश्मनी में टीवी चैनलों की चर्चा में बैठ कर कुछ लोग इतिहास को भी नकारने का प्रयास करते हैं, अभी हाल ही में चुनाव परिणाम और संसद में राहुल गांधी के भाषण के संदर्भ में जमीअत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी का एक बयान समाचारपत्रों में प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने कहा था कि देश के संविधान और लोकतंत्र को बचाने और नफरत को समाप्त करने के लिए इस बार मुसलमानों ने एकजुट हो कर वोट दिया, इस पर एक प्रसिद्ध टीवी चैनल ने बाक़ायदा चर्चा का आयोजन किया जिसमें एक व्यक्ति ने दोटूक कहा कि यह बयान उस दारुल उलूम देवबंद से संबंधित व्यक्ति का है जिसने पाकिस्तान बनवाया, हालांकि दुनिया इस तथ्य से अवगत है और स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित लिखी गई सभी पुस्तकों में यह बात दर्ज है कि दारुल उलूम देवबंद और जमीअत उलमा-ए-हिंद के लोगें ने मुहम्मद अली जिन्ना के द्विराष्ट्र सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया था और उन्होंने भारत ही में रहने का निर्णय लिया था। सच यह है कि यह सब कुछ योजनाबद्ध रूप से हो रहा है, जिसका उद्देश्य देश के नागरिकों को धर्म और जाति के नाम पर बांटना, एक विशेष धर्म के अनुयायियों के विरुद्ध झूठ फैलाना और लोगों के बीच दूरियां पैदा करना है। इस बार के चुनाव परिणामों से यह बात स्पष्ट हो गई कि आम लोगों पर इस प्रकार के भ्रामक प्रचार का प्रभाव अधिक नहीं होता लेकिन एक विशेष वर्ग है जो इस प्रकार की बातों को फैला कर जनता में उत्तेजना और एक दूसरे के खिलाफ नफ़रत के बीज बोने के प्रयास में व्यस्त रहता है, इसके विपरीत देश का मुसलमान इस प्रकार की बातों पर अनावश्यक प्रतिक्रिया व्यक्त करने से अब बचने लगा है। उकसाने के हर संभव प्रयास के बावजूद अब वो पहले की भांति उत्तेजित नहीं होता, मुसलमानों से संबंधित चाहे कुछ भी दुष्प्रचार किया जाए ऐतिहासिक रूप से यह बात सिद्ध है कि अपने देशवासियों के प्रति उसका व्यवहार सदैव प्रेम और सद्भावना का रहा है। पिछले दिनों हाथरस में जो घटना हुई अपने देशवासियों के साथ मुसलमानों ने भी इस पर दुख प्रकट किया। जमीअत उलमा-ए-हिंद ने तो इससे भी आगे बढ़कर न केवल यह कि अपने एक प्रतिनिधिमंडल को हाथरस भेजा बल्कि पीड़ितों की आर्थिक सहायता भी की। 7 जुलाई के उर्दू दैनिक ‘इंक़लाब’ में प्रकाशित होने वाली एक खबर के अनुसार मौलाना सय्यद अरशद मदनी के निर्देशन पर जमीअत उलमा-ए-हिंद के प्रतिनिधिमंडल ने जिस प्रकार हाथरस का दौरा किया और पीड़ितों को सांत्वना दी, मीडीया में इसकी प्रशंसा हो रही है, यहां तक कि अपनी मुस्लिम दुश्मनी के लिए प्रसिद्ध कुछ टीवी चैनलों ने इस खबर को प्रमुखता से दिखाया है। वास्तव में ऐसा कर के जमीअत उलमा-ए-हिंद ने एक बार फिर साबित कर दिया कि वह धर्म से ऊपर उठकर मानवता के आधार पर राहत और कल्याण कार्य करती है। खबर के साथ मौलाना मदनी का जो बयान प्रकाशित हुआ है वह बहुत महत्वपूर्ण है, जिसमें उन्होंने कहा है कि मुसलमान अपने देशवासियों के दुख-सुख में शामिल हों क्योंकि सांप्रदायिकों द्वारा दिलों में जो दूरियां पैदा करने की साज़िशें हो रही हैं इसका यही सकारात्मक जवाब है। उन्होंने यह भी कहा है कि पिछले कुछ वर्षों से सांप्रदायिकता और धार्मिक कट्टरवाद को जो बढ़ावा मिला और जिस प्रकार नफरत की राजनीति शुरू की गई उसने लोगों के बीच दूरियां पैदा करने का काम किया है और जमीअत उलमा-ए-हिंद अपने चरित्र और आचरण से इस दूरी को साप्त का प्रयास करती आई है। मौलाना मदनी की बात पूर्ण रूप से ठीक है कि नफरत से कभी नफरत का अंत नहीं हो सकता है, इसका उपचार केवल और केवल मुहब्बत है। अयोध्या का चुनाव परिणाम उसका सबूत है कि नफरत फैलाने वाली शक्तियों को धचका अवश्य लगा है परन्तु उन्होंने अपनी हार स्वीकार नहीं की है। इसलिए हम ताकत से नहीं बल्कि मौलाना मदनी के शब्दों में प्यार और सहिष्णुता को बढ़ावा देकर ही नफरत को हरा सकते हैं। वर्षों पहले जिगर मुरादाबादी कह गए हैंः-
उनका जो काम है वो अहले सियासत जानें
मेरा पैगाम मुहब्बत है जहां तक पहुंचे
इसलिए राजनेता जो कुछ कर रहे हैं उन्हें करने दीजिए, आइए हम सब प्यार और सहिष्णुता को फैलाने के मिशन में लग जाएं कि इसी में एक राष्ट्र के रूप में हमारी प्रगति और कल्याण का रहस्य छुपा हुआ है।
(लेखक पी.आई.बी. से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार हैं)